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इष्कृ॑ति॒र्नाम॑ वो मा॒ताथो॑ यू॒यं स्थ॒ निष्कृ॑तीः । सी॒राः प॑त॒त्रिणी॑: स्थन॒ यदा॒मय॑ति॒ निष्कृ॑थ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iṣkṛtir nāma vo mātātho yūyaṁ stha niṣkṛtīḥ | sīrāḥ patatriṇīḥ sthana yad āmayati niṣ kṛtha ||

पद पाठ

इष्कृ॑तिः । नाम॑ । वः॒ । मा॒ता । अथो॒ इति॑ । यू॒यम् । स्थ॒ । निःऽकृ॑तीः । सी॒राः । प॒त॒त्रिणीः॑ । स्थ॒न॒ । यत् । आ॒मय॑ति । निः । कृ॒थ॒ ॥ १०.९७.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:97» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) ओषधियो ! तुम्हारी (माता) निर्मात्रीशक्ति (इष्कृतिः-नाम) रोग के निराकरण करनेवाली प्रासिद्ध है, सो वह भूमि है (अथ) और (यूयम्) तुम (निष्कृतीः-स्थ) रोग का निराकरण करनेवाली हो। (सीराः) नदियों के समान (पतत्रिणीः स्थ) प्रसरणशील हो, शरीर के रोग को बाहर निकाल देनेवाली हो (यत्-आमयति) जिससे जो रोगी है (निष्कृथ), उसे स्वस्थ करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - औषधियों की भूमि परिष्कृत होनी चाहिये, तो औषधियाँ भी निर्दोष उत्पन्न हुई रोगों को शरीर से बाहर निकालनेवाली होती हैं, वे सेवन की हुई नदियों की भाँति शरीर में फैलकर रोगी को निर्दोष-स्वस्थ कर देती हैं ॥९॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) हे ओषधयः ! युष्माकं (माता) निर्मात्रीशक्तिः (इष्कृतिः-नाम) निष्कृतिः “नकारलोपश्छान्दसः” रोगस्य निराकरणकर्त्री (अथ यूयं निष्कृतीः स्थ) अथ च यूयं रोगस्य निराकरणकर्त्र्यः स्थ (सीराः पतत्रिणीः स्थ) नद्य इव प्रसरणशीलाः “सीरा नदीनाम” [निघ० १।१३] शरीराद्बहिर्रोगस्य पातयित्र्यः स्थ (यत्-आमयति निष्कृथ) यो रुजति रोगी भवति तं स्वस्थं कुरुथ ॥९॥